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Friday, January 28, 2011

शहर


आजकल कुछ ज्यादा व्यस्त हुॅ। यही वजह है कि आप लोगों की रचना नहीं पढ़ पा रहा हुॅ। कुछ दिनों के बाद आप लोगों के साथ फिर से जुड़ता हुॅ तब तक के लिए अपनी एक पुरानी पोस्ट को आप लोगों के पास छोड़े जा रहा हॅु। 



ऊँचे-ऊँचे बने हुए घरों और महलों के,
शहर में आकर न जाने कैसे खो गए हम।
मिल सका न हमसे एक घर,
इसलिए फुटपाथ पे ही सो गए हम।
आधी रात को एक गाड़ी आई और
उसमें से कुछ लोग निकल आए।
बोले हमसे, फुटपाथ पे सोते हो
कुछ ना कुछ तो लेंगे हम,
और वो सारा सामान लेकर चले गए
उन्हें खडे़ बस देखते रहे हम।
सुबह लोगांे की नजरों से बचता हुआ
चला जा रहा था स्टेशन की ओर,
कि कुछ पुलिस वाले आए और
पकड़ कर ले गए थाने।
बोले सर, आतंकवादी को
पकड़ कर ले आए हम।
इतना सब होने के बाद
बस एक ही है गम।
मैं क्यों गया उस ओर,
जहाँ कोई इन्सां रहता नहीं
चारों तरफ दहशतगर्दी और लूटमार है।
लोग गाँवों को कहते हैं,
मैं कहता हूँ ये शहर ही बेकार है।

11 comments:

  1. 'log gavon ko kahte hain
    main kahta hoon ye shahar hi bekar hai '
    amit ji ,
    bilkul sahi kaha aapne . gaon me sab kuchh hai paisa nahi hai. shahar me paisa hai baki kuchh bhi nahi hai .

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  2. गाँव तो गाँव है
    सुन्दर रचना

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  3. इतना सब होने के बाद
    बस एक ही है गम।
    मैं क्यों गया उस ओर,
    जहाँ कोई इन्सां रहता नहीं
    चारों तरफ दहशतगर्दी और लूटमार है।

    बहुत सार्थक रचना..बहुत सुन्दर

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  4. शहर का दर्द ...सार्थक रचना

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  5. चारों तरफ दहशतगर्दी और लूटमार है।
    लोग गाँवों को कहते हैं,
    मैं कहता हूँ ये शहर ही बेकार है।

    उक्त तीन पंक्तियों में कविता का सार है जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं.

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  6. बहुत सुन्दर शब्द चुने आपने कविताओं के लिए..

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  7. main to kahta hoon ye shahar hi bekar hai.
    wakai, khoob kaha.

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  8. गांव जैसा सुकून शहर में कहां ?

    इस अच्छी रचना के लिए बधाई।

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  9. बहुत ही अच्छी रचना है ... सच कहा है ... शहरों की वास्तविकता लिखी है ..

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  10. सही चिंतन प्रस्तुत करती रचना

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