चित्र गूगल साभार
जिंदगी आऊगाँ मैं तुमसे कभी मिलने के लिए
अभी उलझा हुँ मैं अपनी उलझनें सुलझानें में।
मैं हिन्दु, तुम मुस्लिम, ये सिख वो ईसाई है
मिलना हो गर इसाँ से तो चलो मयखाने में।
है कजा मंजिल तो है तु भी हमसफर मेरा
फिर क्यों अलग से रहते हैं हमलोग इस जमाने में।
उठता नहीं धुआँ कभी आग के जले बिना
कुछ तो हकीकत है तेरे मेरे फसाने मे।
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